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अकीदत के फूल (Akidat Ke Phool)
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दुनिया बहुत बड़ी है । इसके हर ज़र्रे में खुदा की अनगिनत निशानियां छिपी हुई हैं । तहकीकात का बेपनाह सिलसिला जारी है और रहेगा । कायनात की हकीकतों पर अनगिनत पर्दे पड़ें हुए हैं । जो पर्दा उठता है , एक स्थायी कला बन जाता है । इसी तरह दुनिया में सैकड़ों बल्कि हज़ारों कलाएं पैदा हो गईं और पता नहीं अभी और कितने इज़ादात होंगी । तहकीकात करने वालों ने अपनी सारी जिन्दगी लगा दी । किताबें लिखीं , हक़ीरतों को खोला , मगर कुछ दिनों के बाद पता चला कि सब बेकार , हकीकत ज्यों की त्यों रहस्य में है (पर्दे में है) ।
इन बेकार की नाकाम कोशिशों को देखकर मैंने यह सबक हासिल किया है कि मैं ऐसी मेहनत न करूंगा जो कुछ दिनों बाद बेकार हो जाए । लिहाज़ा मैंने ऐसी खिदमत अंजाम दी । जिससे आखिरत और दुनिया में मेरा और मेरे बुजुर्गों का भला होगा और मेरे मुल्क व कौम के बच्चे , ज़वान , बूढ़े , मर्द व औरत सबका भला होगा । यह काम है अल्लाह के आख़िरी नबी हजरत मुहम्मद मुस्तफा (ﷺ) की मुबारक सीरत लिखना । यही मेरी जिन्दगी का मकसद है और मैं इसी पर अपनी मौत चाहता हूं
प्यारे नबी (ﷺ) की पूरी जिन्दगी एक स्थाई हकीकत , एक वाजेह चमत्कार और हमारे लिए एक नमूना और सबक है ।
कुरआन मज़ीद में अल्लाह तआला ने अपने प्यारे बन्दे का और उनकी खूबियों व भलाईयों का जिक्र किया है । फिर कुरआन की तालीमात की रोशनी में प्यारे नबी (ﷺ) ने अम्ल करके एक नमूना दुनिया के लिए छोड़ा । प्यारे नबी (ﷺ) ने पैदा होने से लेकर पूरी जिन्दगी किस तरह गुज़ारी, जवानी और बुढापे का हाल, सोना-जागना, उठना-बैठना, खाना-पीना, दोस्ती-दुश्मनी, सुलह, जंग, इबादात, आदतें और आपके सूलूक, बीवी-बच्चों, दोस्त व रिश्तेदार, पड़ोसी और शहरवाले , और रोज़ाना की जिन्दगी के हालात जो कि सीरत और हदीस की साबित किताबों में मौजूद हैं । मैंने वहां से लेकर आसान ज़बान में जमा कर दिए हैं । और इसका नाम रखा है - प्यारे नबी (ﷺ) की पाक जिन्दगी ।
यह मेरी जिन्दगी का हासिल है , ये मेरी अकीदत के फूल हैं , यह मेरे ईमान की रूह है , जिसे "गुम्बद-ए-खिज़्रा" पर कुर्बान करके आज दुनियावालों के सामने पेश कर रहा हूं । और कल कयामत के दिन खुदा तआला के सामने भी ले जाऊंगा । यह कयामत तक काम आने वाली अल्लाह तआला के आखिरी रसूल हजरत मुहम्मद मुस्तफा (ﷺ) की मुबारक जिन्दगी का आईना है । खुदा हर इन्सान को इसे देखने और इसके अनुसार अमल करने की तौफीक दे । [ आमीन ! ]
— एज़ाज़ुल-हक़ कुद्दूसी
22 रबिउल-अव्वल, 1364 हिजरी
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