बकरीद का त्यौहार क्यों मनाया जाता है ?
इस्लाम मजहब में जो भी त्यौहार हैं उसकी एक तारीख़ी पशेमंजर है । ईद उल अजहा यानी बकरीद भी एक पाक तारीख़ी त्योहार है । यह त्यौहार पैगंबर हजरत इब्राहिम अलैहिस्सलाम की सुन्नत की अदायगी का नाम है । गौरतलब है कि इस त्योहार का असल पैग़ाम यह है कि, एक इंसान अपने रब की रजामंदी के लिए अपना सबकुछ कुर्बान कर सकता है।
ईद उल अज़हा मनाने के पीछे की वजह क्या है ?
हजारों साल पहले जब अल्लाह तआला ने हजरत इब्राहिम अलैहिस्सलाम का इम्तेहान लेना चाहा तो उन्होंने इब्राहिम अलैहिस्सलाम से उनसे इकलौते बेटे हजरत इस्माईल अलैहिस्सलाम की कुर्बानी देने का हुक्म ख्वाब में दिया। हजरत इब्राहिम अलैहिस्सलाम अपने बेटे से बेइंतिहा मुहब्बत करते थे लेकिन इसके बावजूद वह अपने रब की खुशनुदी हासिल करने के लिए अपने इकलौते और सबसे अजीज़ बेटे हजरत इस्माइल अलैहिस्सलाम को अल्लाह की राह में कुर्बान करने के लिए तैयार हो गए । जब कुर्बानी देने के लिए उन्होंने छुरी चलाई तो अल्लाह तआला ने अपने फरिश्ते जिब्रईल (अ.स.) को भेजकर हजरत इस्माइल अलैहिस्सलाम के जगह पर एक दुम्बे को रखवा दिया । जब हजरत इब्राहिम अलैहिस्सलाम ने अपने आँखों पर बंधी पट्टी हटाई तो वो देखकर हैरान रह गए कि उनका बेटा इस्माईल सही सलामत है और उन्होंने एक दुम्बे को ज़बह कर दिया है। वो फौरन सारा माज़रा समझ गए और अल्लाह तआला का शुक्र अदा करने लगे । इस तरह से हजरत इब्राहिम अलैहिस्सलाम अपने रब के इम्तिहान में कामयाब भी हो गए और उनके अजीज़ बेटे को भी उनसे नहीं छीना गया।
बकरीद के बारे में कुरआन पाक की आयतें :
- कुरान शरीफ की सूरह हज की एक आयत में कहा गया है : "कुर्बानी के जानवरों को हमने अल्लाह की अजमत का निशान बनाया है और इसमें तुम्हारे लिए खैर है।"
- कुरान शरीफ की सूरह अल इमरान आयत नंबर 183 में कहा गया है : "अल्लाह ताला ने हमसे यह तय कर लिया है कि हम किसी रसूल पर उस वक्त तक ईमान ना लाएं जब तक कि वह हमारे पास ऐसे ही कुर्बानी ना लाए जिसे कुबूल करें ।"
- कुरान शरीफ की सूरह मायदा की आयत नंबर 27 में फरमाया गया है : "आप उन लोगों को आदम के दो बेटों की सच्ची कहानी सुनाएं जब दोनों ने कुर्बानी की तो उसमें से एक की कुर्बानी कुबूल हुई और दूसरे की नहीं ।
- कुरान पाक की सूरह हज में कहा गया है : हमने उन जानवरों पर कुर्बानी अता की है , जो अल्लाह का नाम लेते हैं ।
इस बात से यह साबित होता है कि कुर्बानी के लिए बड़े या महंगे जानवर की नहीं बल्कि सच्चे दिल से अल्लाह के लिए अकीदत का होना जरूरी है।
कुरान पाक में कुर्बानी के लिए 3 शब्द आए हैं :
1. नहर
2. नसक और
3. कुर्बान ।।
हदीस सही अल जामा , नंबर 264 में कहा गया है :
अल्लाह के नजदीक सबसे बड़ा कुर्बानी का दिन है ।
कुर्बानी करना किन लोगों पर फर्ज है ?
कुर्बानी वैसे तमाम मुसलमानों पर फर्ज है जो माली हालत से खुशहाल हैं । लेकिन इस्लाम में समाजी तवाज़न ( यानी सामाजिक संतुलन) पर खास ध्यान रखा गया है इसीलिए कमजोर गरीब लोगों पर कुर्बानी देना फर्ज नहीं किया गया है । जबकि मालदारों पर कुर्बानी करना फर्ज है ।
कुर्बानी देने का मकसद क्या है ?
कुर्बानी का तोहफा उन गरीबों तक पहुंचाना भी फर्ज है जो इसके लायक नहीं है । इस्लाम मज़हब में भी कुर्बानी का इकलौता मकसद सुन्नत-ए-इब्राहिम की अदायगी है और ये खुद को अल्लाह तआला के हवाले करने का सबूत है । क्योंकि हदीस में साफ तौर पर कहा गया है कि कुर्बानी के जानवर की खाल-बाल और खून अल्लाह तक नहीं पहुंचते हैं , बल्कि कुर्बानी देने वाली की नियत को अल्लाह कुबूल करता है ।
उर्दू ज़ुबान के जाने-माने शायर डॉ अल्लामा इकबाल ने सुन्नत-ए-इब्राहिम यानी कुर्बानी की अहमियत को अपने एक शेर में इस तरीके से लिखा है :
आज भी जो हो इब्राहिम का इमां पैदा
आग कर सकती है अंदाज-ए-गुलिस्तां पैदा
कुर्बानी कोई दिखावे की चीज नहीं है , यह एक इबादत है और इस्लाम में इबादत इंसान की पाक नियत को पूरा करने का नाम है ।
ईद उल अज़हा को लेकर एक अहम अपील
आजकल एक समाजी बीमारी यह पैदा हो गई है कि लोगों की नज़र में खुद को ऊंचा दिखाने के लिए 50 हज़ार से लेकर 01 लाख रुपए तक के हलाल जानवरों की कुर्बानी करने का ढिंढोरा पीटा जाता है । जबकि इस्लाम में जाहिरी यानी दिखावटी नुमाइश इबादत में कभी भी जायज नहीं मानी गई है क्योंकि , ऐसे जाहिरी सुलूक से गरीब तबके के लोगों में एक मायूसी पैदा होती है । इस से परहेज करने की जरूरत है क्योंकि इस्लाम मजहब समाजी हमअहनगी के असल पैग़ाम पर आधारित है ।
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बकरीद का त्योहार हमें एक साथ दो पैग़ाम देता है :
- पहला पैग़ाम : इस धरती पर जो भी इंसान बसता है उसका अपना कुछ भी नहीं है सब कुछ अल्लाह तआला है और इंसान को अल्लाह तआला की रजामंदी के लिए ही अमल करना चाहिए ।
- दूसरा पैगाम : एक अमीर इंसान का माल सिर्फ उसके ऐश-ओ-आराम के लिए नहीं है, बल्कि उन गरीबों के लिए भी है जो चाहते हुए भी अपनी जिन्दगी में खुशी हासिल करने के लायक नहीं है । यही वजह है कि कुर्बानी के जानवर के एक तिहाई हिस्से को गरीबों में बांटने का हुक्म है ।
अगर ऐसा किया जाता है तो एक तरफ अल्लाह तआला की रजामंदी हासिल होती है , तो दूसरी तरफ उन गरीबों की खुशी से इंसान को एक सुकून हासिल होता है । शर्त यह है कि त्योहार को मजहबी उसूलों की रोशनी में मनाया जाए ताकि इस्लाम जो कि हमअहनगी (समानता) की निशानी है वह इंसानियत के नियमों पर खरा उतर सके ।
बकरीद : आखिरी बात
हमे बकरीद की कुर्बानी किसी को दिखाने के लिए नहीं बल्कि सच्चे दिल से अल्लाह तआला के खातिर करनी चाहिए । और कुर्बानी के बाद कुर्बानी के गोश्त का एक-तिहाई हिस्सा गरीबों में तकसीम कर देना चाहिए ।
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